रविवार, 29 नवंबर 2015

गति

जिन्हें मैं मील का पत्त्थर 
समझ कर पूजता था और 
जिनके पास पहुँचने के लिए 
दुर्गम रास्ते चला मैं 
पर आज वो छूट गए हैं पीछे 
खड़े हैं खँडहर से –
मुखर महत्वपूर्ण मानक थे 
अब हैं मूक – 
क्योंकि -
जिंदगी आगे बढती गई है 
नए मानकों को गढ़ती गई है 
रास्ते को अकेलापन भी है
डर भी, भूतकाल की चिताएं 
धू-धू कर के जल रहीं हैं 
शव के अवशेष –
हड्डियाँ, गर्म राख, 
अधजली लकड़ियाँ,
श्मशान-वैराग्य लिए 
घर लौटते स्वजन, परिजन –
रास्ता भी लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ
और आगे बढ़ता हुआ मग्न 
और चौराहे पर खड़ा मैं –
धीरे-धीरे लोग अजनबी होते जा रहे हैं !
मील का पत्त्थर और आगे हैं 
शायद दूर, बहुत दूर 
फिर भी चलना तो पड़ेगा ही 
गति से ही गंतव्य है !

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