रविवार, 29 नवंबर 2015

गति

जिन्हें मैं मील का पत्त्थर 
समझ कर पूजता था और 
जिनके पास पहुँचने के लिए 
दुर्गम रास्ते चला मैं 
पर आज वो छूट गए हैं पीछे 
खड़े हैं खँडहर से –
मुखर महत्वपूर्ण मानक थे 
अब हैं मूक – 
क्योंकि -
जिंदगी आगे बढती गई है 
नए मानकों को गढ़ती गई है 
रास्ते को अकेलापन भी है
डर भी, भूतकाल की चिताएं 
धू-धू कर के जल रहीं हैं 
शव के अवशेष –
हड्डियाँ, गर्म राख, 
अधजली लकड़ियाँ,
श्मशान-वैराग्य लिए 
घर लौटते स्वजन, परिजन –
रास्ता भी लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ
और आगे बढ़ता हुआ मग्न 
और चौराहे पर खड़ा मैं –
धीरे-धीरे लोग अजनबी होते जा रहे हैं !
मील का पत्त्थर और आगे हैं 
शायद दूर, बहुत दूर 
फिर भी चलना तो पड़ेगा ही 
गति से ही गंतव्य है !

पराधीन


प्रबल-अहंकार लीन 
बुद्धि छारण-छरण छीन 
छद्म-शालीन ह्रदय-हीन
मुख-मंडल दर्प-हीन 
लेखन-पठन-पाठन दिशा-हीन
भव्य-तर्क अर्थ विहीन 
अन्धानुकरण विचार-धारा-रंगीन 
सम्वाद-वाद-विवाद वस्त्र-विहीन 
स्वम्भू-प्रतिनिधि आत्मलीन
सम्पूर्ण संसार टी वी स्क्रीन
उत्तेजक भाषा भाव-हीन 
जानकार चक्षु-हीन 
जानकर चक्षु -हीन !

महापर्व


सूर्य उर्जा का प्रतीक
जल जीवन का 
फल-फरहरी यौवन का 
अर्घ्य आस्था का 
ब्रत संयम का 
प्रसाद फल का 
स्वछता स्वास्थ्य का 
स्वछंदता प्रलय का 
अस्त होना उत्थान का 
उदय नई आशा का 
नदी-घाट सौहार्द्र का 
कर्म सामर्थ्य का 
समापन प्रारंभ का 
एक नई प्रतिबद्धता का 
एक नई सोच का !

क्या मृत्यु जीवन का विस्तार है ?


मैं रात में जल्दी सोता हूँ, सुबह जल्दी उठता हूँ l कल रात नींद नहीं आ रही थी l कारण, शायद एक बहुत ही आदरणीय घनिष्ट से शाम को फ़ोन पर बात-चीत और उनका बहुत बृद्ध होना और पल-पल कमजोर होना, निरंतर मृत्यु की ओर बढ़ते जाना कहीं मेरे अंतस मन में बैठ गया था l फिर मैं तकिये के बगल में रखी डायरी और कलम लेकर लिखने लगा और ये कविता कागज पर उतर आई l मेरी ज्यादातर कविताएँ ऐसी ही आती हैं; सुबह उठने पर जिस भाषा में विचारों का प्रवाह आता है; भोजपुरी, अंग्रेजी या हिंदी में उसको मैं तुरत डायरी में लिख लेता हूँ या टाइप कर देता हूँ l हो सकता हो ये भाव मेरे मन में कई वर्षों से हों लेकिन कल रात इनको मौका मिला बाहर निकलने का ! फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ के हीरामन की तरह हम सभी एक बार जरूर सोचते होंगे जीवन के औचित्य के बारे में l 
आरम्भ से जीवन का धीरे-धीरे एक बिंदु से वृत्त बन जाना, फिर मृत्यु हम सभी को निराकार कर देती है l उसके बाद क्या है ? क्यों है ऐसा ? क्या प्रयोजन है ? प्रकृति को पता हो सकता है, मानव को नहीं क्योकि प्रकृति मानव के ज्यादा शक्तिशाली है l पतझड़ के समय पत्तों का मौन इंगित करता है मनुष्य के जीवन के अंत का भी जिसके बारे में किसी को भी नहीं पता है l उसके बाद अन्धकार ही अन्धकार है !
विस्तार 
1.
एक सूक्ष्म बिन्दु, मुक्त-उन्मुक्त-अरूप-
बढ़ते-बढ़ते-बनते-बिगड़ते, हँसते-खेलते 
लहरों की पतवार ले, डूबते-उतराते
फैलते-फैलाते बन जाता है-
बाहर आना आसान नहीं होता,
अंतर्यात्रा नियति है मानो, न मानो 
फिसलते-जूझते-गिरते-पड़ते वातावर्त से
और रूप अचानक एक दिन हो जाता है
जड़, निष्प्राण, निरर्थक 
(दीवारो पर टंगा हुआ) 
विदेह और निराकार !
2.
क्यों ? किसलिए ? 
शाश्वत प्रश्न है 
निरूत्तर करता हुआ 
सदियों की जिज्ञासा को
लेकिन शायद पत्तियों को पता है 
वायु को इसकी भनक है 
जमीन और जल को जानकारी है 
क्यों, कहाँ और कब होगी वर्षा 
और कब पड़ेगा सूखा 
प्रलय में होगें कितने विलीन 
कितने होगें बेघर, शांत सागर में 
कितनों की किश्तियाँ डूबेगीं !
3.
और पत्तियों को पता है-
धरती पर मौन पड़े 
उनके मुस्कान का पीलापन 
देता है संकेत
मृत्यु के किए गए 
विस्तार का 
बिन्दु से वृत्त का 
वृत्त से निराकार का 
बस इतना ही है 
इसके आगे है अन्धकार 
से प्रकाशित वह मार्ग 
जिसपर स्वयं चलना है 
विज्ञान और शास्त्रों का ज्ञान 
प्रज्वलित नहीं करता एक दीप भी 
राह में उस द्वीप के !

माटी को भी नहीं पता


कहाँ जाना है ?
किधर? 
कौन से गाँव ?
कौन सा शहर ?
घूमते घुमाते
बस चलते ही जाना है !
स्थिर होने पर भी 
विचारों के साथ !
पान बनवाने गया था 
कल ही की तो बात हो जैसे, 
लोग आए थे, बाबूजी ने भेजा था 
ट्रेन में बैठा था अडयार जा रहा था 
सोचा यहाँ तक आ गया 
तो वहां भी धूम लूँ !
एक कमरे में बैठा हूँ 
वारुणी नदी के किनारे
राजघाट बनारस में 
अँधेरा आ सन्नाटों के बीच 
दरवाजे पर दस्तक होती है 
एक बुजुर्ग महिला है कुछ पूछ रहीं हैं 
सारनाथ जाना है, घूमने आईं हैं 
विदेश से इस देश की मिटटी 
ले जायेगीं, नदी के तट से, 
अपने मूर्तिकार मित्र के लिए
मैं सोचता रहा कैसी कल्पना है 
कैसा प्रेम धरती से, माटी से 
हम सारनाथ गए साथ साथ 
अचानक एक कार्ड देख कर 
याद आया, फिर लौटने के बाद 
मैंने कृष्णमूर्ति का ऑडियो कैसेट 
ख़रीदा था बाबूजी के लिए, 
बाबूजी ने तो दिया था 
कृष्णमूर्ति की जीवनी 
जो मैरी लुटयंस ने लिखा था 
पढ़ रहा हूँ बैंगलोर से अडयार जाते वक्त 
बस में वो छोटा बच्चा
अपनी माँ की गोद में बैठा 
मेरी तरफ बार-बार हाथ 
बढ़ा रहा था, मोहक था दृश्य 
वहां खरीदी मैंने एक छोटी सी गीता 
ऐनी बेसेंट ने लिखी थी उसकी भूमिका 
बड़े बरगद के नीचे बैठा अकेला, 
बरसों से बरगद एक ही जगह खड़ा था 
अपनी शाखाओ के साथ, मुझे पता था 
पता था पटना आना है लौट कर
लेकिन अब फिर कहाँ जाना है 
ये नहीं पता था !

वो सूरज भी अपना ही था




निकल रहा हूँ
अनिश्चितता और अनजाने
भय के साथ सामान बांध कर
प्लेटफार्म पर खड़ा हूँ
मित्र छोड़ने आए हैं
रास्ता कई पड़ावों भरा है
पहला पड़ाव दिल्ली
पहुंचता हूँ एक परिचित के यहाँ
डेरा डालता हूँ, संकोच के साथ
सरहद पार करनी है
सरहदों को पार करने के लिए
कागजों की जरूरत होती है
और कागजों पर मुहरों की
कागजों  से भरी फाइल
और अनजाना  भय
दोनों बैग से सर निकाल कर
बार-बार मेरा मुंह देख रहे हैं !
विघ्नों के बीच काम पूरा हुआ !
फिर निकलता हूँ
पहुंचता हूँ बम्बई, नितांत अपरिचित के यहाँ
डेरा डालता हूँ, सुबह से शुरू होती है
सरहद पार करने के पहले की दौड़-धूप
जमीन से आसमान में उड़ने की
जिसे हम अभी बाँट नहीं सके
लौट कर शाम को आना थकान के साथ,
चाय के बाद घर  की बच्ची से चर्चा
साहित्य पर, बच्ची मंटो पढ़ रही है
कितने सवाल हैं उसके मन में
पूछती है मैं जवाब देता हूँ,
बाबूजी ने ही दिया था मंटो को पढने के लिए
सभी कहानियाँ हैं जेहन में,
मंटो को पढना अपने आप को पढना है
आईने के सामने खड़े होना हैं, उन जगहों पर
जाना है जहाँ समाज जाने की स्वीकृति नहीं देता
वहाँ मंटो धक्के देते हुए जाने को मजबूर करते हैं
शब्दों से बुनते है छोटी छोटी कहानियों में
एक विस्तृत फलक जिससे होकर  जमीर की रोशनी
रूह पर उजाला फैलाती है एक अलग सोच का
जिससे समाज ने इंसान को महरूम रखा था
बड़ी–बड़ी आखों वाली बच्ची आश्चर्यचकित  है,
स्नेह्मयी  शांतिस्वरूपा खो गई है कही
मंटो की झकझोरती रचना संसार में,
इस संसार में भी, पता नहीं कहाँ ?
फिर कभी  सुना नहीं, मिला नहीं !
फिर निकल रहा हूँ
कौन था मैं ? कहाँ जा रहा था ?
मेरा गंतव्य कहाँ है ?
पूरा पता नहीं है!
जगह का नाम, देश का नाम पता है
ह्रदय की धड़कन क़दमों से बहुत तेज
टैक्सी  रूकती है, कागजों की फाइल है हाथ में
और एक पीछे छूटती, ओझल होती दुनिया साथ में!
सुबह पहुँचता हूँ एक नई धरती पर
गेस्ट हाउस में नए पुराने चेहरे
नई दुनिया नया परिवेश
फिर निकल जाता हूँ
साथ में पासपोर्ट है और नए मित्र
कार में बैठ पहाड़ी रास्ता तय करता हूँ
सूरज और बादल साथ साथ चलते हैं
शाम पहाड़ियों से झांकती है
सूरज उसे इशारे कर लौट जाता है
पहाड़ियों  के पीछे  धीरे-धीरे
धीरे-धीरे अँधेरा घाना होता जा रहा है
गंतव्य आता है, थोड़ी थकान लिए हुए
घर की चाभी हाथ में मिलती है
रात का समय है
चिन्ताएँ पलकों पर बैठ ऊँघने लगी हैं
झरने के पानी के साथ आँखे खोलता हूँ
खिडकी के बाहर देखता हूँ
फिर सुबह  होगी, मुझे पता था !