बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

प्रेम एक विस्तार है
मृगतृष्णा भी है -
प्यासे को पानी नहीं 
पानी की चमक के पीछे पीछे 
दौड़ते दौड़ते शाम हो जाती है 
चमक खतम हो जाती है 
मुँह खुला का खुला रह जाता है -
प्रेम में पागल जो  भी हुयें हैं 
उनका पागलपन ही प्रेम है 
अपने से या दूसरों से 
एक छोर से दूसरे छोर तक
इन्द्रधनुष का झुकाव 
वही तो है जहाँ पर 
बारिश भी है धूप भी है 
प्रेम के दीवाने दिखावा नहीं करते 
नहीं लगाते तख्तियाँ
जिन पर लिखे रहते हैं 
वायदे और शर्तें –
प्रेम एक पुष्प है –
कोई भी हो सकता है –
लाल रंग का गुलाब 
(मुँह पर फेका गया तेज़ाब !)
चंपा, चमेली, गुलाल 
बसंती बयार, हिरनी की चाल,
सरसो का पीलापन, महुआ का सोंधापन 
कोयल की कूक, ह्रदय में हूक
उपमाएं, प्रतिमान और प्रतीक 
उतने ही रूप  जितने प्रेमी 
सागर के होठ मुस्कराते, चुप 
भँवर में गहरे ले जाकर 
छुपा देते  हैं उर्जा को –
एक न एक दिन हम सभी 
प्रेम करते हैं – विफल या सफल 
वो मायने नहीं रखता 
मायने वही रखता है 
जो सागर की तलहटी में
कोरल की तरह  खिला हुआ 
शांत बैठा है, मनो पानी भी 
उसे गला कर मिटटी 
नहीं कर पाती है – 
वही प्रेम है, क्या वही प्रेम है –
प्राचीन, मौन, निर्विकार 
(मनुष्यों द्वारा किया गया बलात्कार !)
विषय-वासना और उपासना की राह पर बैठा – ज्ञानमार्गी –
भक्ति से ज्ञान की यात्रा –
या भक्ति और ज्ञान दोनों 
क्या वही प्रेम है -
क्या प्रेम एक विन्दु है -
क्या प्रेम एक चक्र है -
स्वधिस्थान, विसुद्ध, अनहत, मूलाधार - 
या निराकार का विस्तार !
Photo: Courtesy Google

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

कविता शाश्वत है, दुःख शाश्वत है, जैसे माँ और बाबूजी का जाना

नुनू बाबा (जो भजन गाया करते थे ) भी मांझी के पुल से 
लौट कर धर नहीं आए थे पर 
लगा नहीं था डर
ऐसा लगा था जैसे सभी सहमे सहमे अँधेरी रात में 
बातें करते उनका घर आने का कर रहे थे इंतजार !
बाबा के जाने पर मेरी कक्षा में आकर दरवान ने 
दिया था बाबूजी का संक्षिप्त सन्देश 
मैं बहुत दूर था अपनों, अपने घर और अपनी धरती से 
लेकिन बाबा के जाने का, (जो मेरे मित्र भी थे, और सहृदय पाठक थे )
और इया के जाने का, ( जो उम्र ढलने पर भी  बैठे बैठे अपनी बची हुई उर्जा से 
कार्मिक कविता लिखती थीं, मना  करने पर भी घर के छोटे छोटे काम करके, 
जिनको बिरले ही कोई याद करता हो आज ) 
,
उस दुनिया में जहाँ हमें भी जाना है, कब  - पता नहीं !
रोज़ किसी  न किसी के जाने की खबर मिलती रहती है,
अभी कल ही खबर मिली कि मास्टर साहेब भी (जो कि कवि नहीं थे)
चुपचाप उठे और चले गए अनन्त यात्रा पर  
सुनकर पहले की तरह दुःख भी होता है 
लेकिन उससे ज्यादा होता है डर !
कविता के कोमलता और सहजता के जाने का डर 
एक अलिखित और मधुर संस्कार के मर जाने का डर 
जो केवल हाथ हवा में उठाकर 
और गला फाड़कर इन्कलाब जिंदाबाद 
कहने से जिन्दा नहीं हो पाता !
लेकिन
किसी जीवंत कवि के जाने के बाद 
कविता फिर से जी उठती है !

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2022

तुम एक शरीर नहीं हो सकते 
आत्मा भी नहीं
शरीर  का  दुःख जिसने झेला है 
शरीर का सुख जिसने भोगा है 
मुखमंडल पर उतरा हुआ दर्प 
समय के धामिन सांप  ने पैरो  को जकड लिया 
आगे  बढ़ना ही है - लेकिन कितना  आगे !
रूप-अरूप , व्यक्त-अव्यक्त  का झमेला  
तुमने ही  खड़ा किया है 
तुम एक आत्मा  नहीं  हो सकते !
हम  अपने  भविष्य  के
बारे में  चिंतित  रहते हैं - और
हम सभी जानते  है 
कि हमारा  भविष्य क्या है !

सदियों से रचे  गए  शास्त्रों ने
कोई  बदलाव नहीं किया है इसमें !

कितने  असहाय हैं  हम !

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

लकीरों के भी 
अपने आयाम होते हैं 
जिन्हें वे समझ नहीं पाते हैं 
तभी तो उनका लकीर का फ़क़ीर होना 
उनके तालीवादकों के लिए 
गौरव की बात है
हालाँकि ये और बात है
कि गाली कौन दिलवा रहा है
और ताली कौन बजवा रहा है 
लेकिन एक बात तो तय है 
कि वो लकीर का फ़क़ीर 
ही होगा ।
@akp 2019

सोमवार, 31 जनवरी 2022

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌৷৷15.5৷৷

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं॥5॥

Free from pride and delusion, with the evil of attachment conquered, ever dwelling in the Self, their desires having completely turned away, liberated from the pairs of opposites known as pleasure and pain, the un-deluded reach that Goal Eternal.

शनिवार, 29 जनवरी 2022

वक़्त के सर्द लम्हों से ग़र  हो तुम्हारी मुलाक़ात/ तो उन्हें हँस के, फ़ख़्र से, ग़र्मजोशी से गले लगा / अलाव के घेरे  की बैठकी के  हमनवा वे न भी हो / ग़र तुम्हारे सब्र के उस्ताद-ए -हर्फ़ न भी हों / तो तुम उन्हें अपने तब्दील- ए -वक़्त का सिला तो दे । 
@anilprasad
30.01.2021