सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

कविता शाश्वत है, दुःख शाश्वत है, जैसे माँ और बाबूजी का जाना

नुनू बाबा (जो भजन गाया करते थे ) भी मांझी के पुल से 
लौट कर धर नहीं आए थे पर 
लगा नहीं था डर
ऐसा लगा था जैसे सभी सहमे सहमे अँधेरी रात में 
बातें करते उनका घर आने का कर रहे थे इंतजार !
बाबा के जाने पर मेरी कक्षा में आकर दरवान ने 
दिया था बाबूजी का संक्षिप्त सन्देश 
मैं बहुत दूर था अपनों, अपने घर और अपनी धरती से 
लेकिन बाबा के जाने का, (जो मेरे मित्र भी थे, और सहृदय पाठक थे )
और इया के जाने का, ( जो उम्र ढलने पर भी  बैठे बैठे अपनी बची हुई उर्जा से 
कार्मिक कविता लिखती थीं, मना  करने पर भी घर के छोटे छोटे काम करके, 
जिनको बिरले ही कोई याद करता हो आज ) 
,
उस दुनिया में जहाँ हमें भी जाना है, कब  - पता नहीं !
रोज़ किसी  न किसी के जाने की खबर मिलती रहती है,
अभी कल ही खबर मिली कि मास्टर साहेब भी (जो कि कवि नहीं थे)
चुपचाप उठे और चले गए अनन्त यात्रा पर  
सुनकर पहले की तरह दुःख भी होता है 
लेकिन उससे ज्यादा होता है डर !
कविता के कोमलता और सहजता के जाने का डर 
एक अलिखित और मधुर संस्कार के मर जाने का डर 
जो केवल हाथ हवा में उठाकर 
और गला फाड़कर इन्कलाब जिंदाबाद 
कहने से जिन्दा नहीं हो पाता !
लेकिन
किसी जीवंत कवि के जाने के बाद 
कविता फिर से जी उठती है !

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