मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

दूर से

हवा में ज़हर
पानी में ज़हर
खाने में ज़हर
शहर में ज़हर
गाँव में कहर 
विचारों में ज़हर
आदमी के पैर पड़ने
के बाद भी चाँद
दूर से, आज भी
प्यारा लगता है !
दूर से मेरा गाँव
आज भी प्यारा
लगता है l
अँधेरा होते ही
बाज़ार बंद हो जाता है
सूनी हो जाती है राहें
केवल ज़हर की दूकाने
खिलखिलाती हुई
खुली रहती हैं
उन्माद भरी भीड़
को बांधें, चाँद
अकेला भीड़ में,
आज भी
प्यारा लगता है l
दूर से मेरा गाँव
आज भी प्यारा
लगता है l

रविवार, 19 अप्रैल 2015

क्या तुम कविता लिखते हो



एक दिन मैंने पर्वत से पूछा,
क्या तुम कविता लिखते हो ?
हाँ हमेशा, अगर तुम पढ़ सको तो 
मेरी कविता पढने के लिए 
तुम्हें अक्षरों की ज़रुरत नहीं है 
बृक्षों,से घिरे और हिम मण्डित 
मेरे मुख को देखो, 
मेरे ह्रदय से निकलते 
झरनों का राग सुनो 
और महसूस करो !

एक दिन मैंने नदी से पूछा, 
क्या तुम कविता लिखती हो?
नहीं मैं कविता लिखती नहीं 
करती हूँ, बैठ जाओ और सुनो 
बहती हुई मेरी धाराओ को l
एक दिन मैंने आकाश से पूछा,
क्या तुम भी कविता करते हो ?
उसकी हँसी, चमक, रूदन, 
बादलों के गगन-गर्जन 
और सात रंगों में 
लय था, प्रलय था 
निस्सीम शांति का राग भी था l

एक दिन मैंने वायु से पूछा,
तुम कैसे कविता कर सकते हो ?
क्यों ? मैं ही तो आदिकवि हूँ 
मेरे बीना पर्वत, नदी आकाश 
मूक हैं, मैं ही उनकी वाणी हूँ 
मैं ही हूँ उनकी कल्पना का प्राण 
अगर तुम्हे विश्वास नहीं तो 
चिड़ियों से पूछ कर देखो !

एक अकेली बैठी हुई 
चिड़िया से मैंने पूछा,
उसने कहा धरती से पूछो l

धरती से पूछा,
उसने कहा पत्तियों से पूछो l

पत्तियों से पूछा,
उन्होंने कहा कलियों से पूछो l

कलियों से पूछा
कलियों ने कहा 
वर्षा की बूंदों से पूछो l

वर्षा की बूंदों ने हँस कर कहा,
सुनो जब वर्षा हो रही हो 
और तुम्हेँ भींगने का मन करे 
उसी दिन तुम्हेँ
उत्तर मिल जाएगा !

समय में बंधा

कल देखा बैठे बैठे 
विमानों को 
बादलों में 
ओझल होते
समय 
जो बिताना था: 
एक उडान 
और दूसरी उड़ान 
के बीच का 
समय,
जो 
असमर्थ था 
तेजी से 
उड़ने में 
घोंघा-चाल से 
चल रहा था 
अनवरत 
अदृश्य 
समय में 
बंधा
समय में बंधे 
हम 
पहुँच 
ही जाते हैं 
अपने अपने 
गंतव्य 
बादलों में छिपी 
चिंता की रेखाओं 
को अपने 
मन में संजोये
जमीन से 
आकाश में 
आकाश से 
जमीन पर 
की उड़ान 
और दूरी 
समय ही 
तय करता है
मुझे ऐसा लगा 
आप क्या सोचतें हैं?