मंगलवार, 19 जनवरी 2016

शब्द जो बोल नहीं सकते

क्या शब्दों से संस्कार की घाटी में
प्रतिध्वनियाँ होती हैं ?
अगर हाँ तो शब्द गिरगिटों की तरह
रंग क्यों बदल रहे हैं ?
मंडूको की तरह बेमौसम अपने कूपों में बैठ
राग क्यों आलापते है ?
स्वार्थ के परकोटे पर बैठ
कलम कुछ भी नहीं लिखते हैं
वही लिखते हैं जिनकी पकड़
उँगलियों पर होती हैं, एक असत्य और
अहिंसक वर्णमाला से बने शब्द
जिस मिटटी से बने हैं
उस मिटटी को कोसने वाले शब्द
पुस्तको के पन्नो के बीच
बैठाये हुए शब्द जो बोल नहीं सकते
भेद खोल नहीं सकते
विचारधारा के कारावास में बंद शब्द
अखबार और पत्रिकाएँ सूत्रधारित हैं
शब्द पुत्तलिकाएं हैं
उँगलियों में कलम के बदले धागें  हैं
संस्कार आत्मग्लानी की खाई में छुपा बैठा है
क्योकि उसको ढोने वाले आधुनिकता को
पचा नहीं पाए हैं, उनके लिए दूर का ढोल सुहावना है
लेखकों, कविताओं, उपन्यासों और आलेखों को आलोचित करने वाले बैठे हैं
संगठित शोध कर शब्दों में ढाल रहें है
अपनी अपनी जगहों से आवंटित और सुरक्षित कर रहें हैं
इतिहास की किताबों में स्वयं को आलोकित कर रहे हैं
पुनर्लेखन, विमोचन, पुनर्पठन और लेखनी की हत्या का लोकार्पण
कंप्यूटर के की-बोर्ड से नहीं हुआ है, लेखनी की हत्या
विचारधारा की कुंद धार की मार से हुआ है
जिसने संस्कार को लाल वस्त्रों में बाँध कर चौराहे पर फेंक दिया है
विद्वता की परिभाषा बदलने में शब्द सहायक हुए हैं
उनके गढ़ें हुए शब्द जो तलवारों और तोपों के
बदले शांति के समय निरंतर चलाये जा सकते हैं
सूत्रधारित शब्द, संगठित शब्द, सुकुंठित शब्द
रात-दिन अँधेरे में उँगलियों को जोर से पकडे चलते रहते हैं
उँगलियों के दबाते ही बंदूक  की नाल से निकल
विस्फोट करते हैं, स्फोट नहीं , ब्रह्मनाद नहीं  
मानवता विस्फोट से आसक्त है, विद्या-व्यसनी नहीं
ब्रह्म का रूप बदलने में सफल हुई है शब्दों के मायाजाल से
संस्कार जंगलों में विचरती एक सुन्दर नवयौवना है
(जिसे कोई भी कलाकार आधुनिकता की होड़ में नग्न दिखा सकता है,
विस्फोट होगा, लेकिन प्रसिद्धि मिलेगी, लोग दलों में विभाजित होगें ! )
जहाँ जगलों में वृक्षों की संख्या दिन-प्रति-दिन कम होती जा रही है
जंगल में शब्दों की कमी से बाघ शहरों की तरफ भाग रहे हैं
गिलहरियाँ सैनिको के शब्द-विन्यास को समझना चाह रहीं हैं
शब्दों से वृक्षों को उगाने में मानवता की कोई बराबरी नहीं कर सकता
जानते हुए भी जानवर चिड़ियाखाने में शरण ले रहे हैं
शब्दों से गाँवो और कस्बों को परिभाषित करने में
साहित्यकारों का कोई सानी नहीं रखता
जानते हुए भी लोग शहरों की ओर पलायन कर रहें हैं,
उनके पास शब्द नहीं हैं
शब्दों की तिजोरी सांसदों के पास है, नेताओं के पास है  
जिन्हें वे मुक्तहस्त दानशीलता से जनता के सामने खोल देते हैं:
कुछ शब्द युधिष्ठिर, कुछ दुर्योधन, कुछ कृष्ण, कुछ गांधारी, कुछ भीष्म,
कुछ शकुनी, कुछ विदुर, कुछ अभिमन्यु की तरह अपनों से धिरे,
युद्ध के मैदान में अपनों से मारे जाते हैं –
आज उत्तरआधुनिकतावाद और भूमंडलीकरण के दौर में
शब्दों की खरीद बिक्री भी होती है, उन्हें तौलना जरूरी नहीं है
लेकिन अक्सर मैं उन्हें धुलते देखता हूँ
नुक्कड़ की दूकान पर एक आदमी को उन्हें
गरम पानी में धोते हुए देखता हूँ
पुराने शब्दों को नए वस्त्र पहन कर
बाज़ार में अकड़ कर घूमते देखता हूँ
अब मैं केवल शब्दों को देखता हूँ
महसूस नहीं कर पाता !

आप बता सकते हैं क्यों ?